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उम्मीद उर्फ़ मृगतृष्णा

 नाकाम ! नाकामयाबी !......



     सुबह की किरणों के साथ कुछ अच्छा होने की उम्मीद एक सदी पीछे धकेल देती है,रात के अंधेरो के साथ-साथ वो उम्मीद भी छूटता जाता है जो सुबह के उजालो से मिला ।सब कुछ  - हाँ !  उम्र भी रेत की तरह फिसलता जा रहा था। 

 एक बार फिर जिंदादिली से जीने की नाकाम कोशिश,हर बार अपने ही कदमो की आहट से एक अनजाना सा डर,फिर कुछ छिन्न जाने का अहसास ,अपने ही कंधो पर अपने जिन्दा लाश को  ढ़ोना और फिर जिंदगी को अपने ही वज़ूद का अहसास करना।

कब तक ! आखिर कब तक यूँ ही उम्मीद बांधे रखेंगे,अब तो हौसलों ने भी दामन छोड़  दिया ,लेकिन फिर  इस अहसान को ले कर कि जिंदगी ने चलने का मौका दे दिया।

बचपन मे भाग्यशाली, किस्मतवाला सुनकर कुछ इठलाता, कुछ चहकता बस इधर से उधर भागता  तितलियों को भी अपने रंग से उधार देता ,अपने आप के होने का गुरुर आज अपने ही किस्मत का वो पन्ना ढूढंता हूँ, न जाने कौन आएगा जो इस काली श्याही भरी रात को चीर कर एक नई व ताज़ी सुबह का अहसास करवाएगा।परन्तु समय ने तो लब को कुछ ऐसा खामोशी का पाठ पढ़ाया कि खामोशी को अपना ही नाम दे दिया। इसी खामोशी से जिंदगी का इंतजार करते रहे,फिर एक दिन जिंदगी इसी खामोशी को चीरती हुई आई भी पर तब तक जिंदगी एक लंबे खामोशी के सफर पर निकल चुकी थी यानी कि खामोशी का चोला ओढ़ चुकी थी।

यह मृगतृष्णा नही तो और क्या है कि, जिस जिंदगी को सासों के रहते ढूंढते रहे वो मिली भी कब ,जब जिंदगी की न खत्म होने वाली शाम हो चुकी थी।



आज भी सब यही कह रहे थे किस्मतवाला हो तो 'नील' जैसा बस थोड़ा सा जी लेता तो शायद आखिरी यात्रा में जाने वाले को भी सुकून मिल ही जाता। क्यों न कहते एक युग उसने दुसरो के नाम कर दिया ,उफ़! खामोश लब अब वो हमेशा के लिए खामोश हो चुके थे।

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